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Sant Kabir Ke Dohe : ज्ञान और जीवन का दर्शन

Table of contents

संत कबीर दास भारतीय संत, कवि और समाज सुधारक थे, जिन्होंने अपने दोहों के माध्यम से समाज में जागरूकता और सच्चे ज्ञान का प्रसार किया। वे भक्ति आंदोलन के प्रमुख कवियों में से एक थे। उनकी रचनाएँ सीधे जनमानस से जुड़ी हुई थीं, जिनमें सत्य, अहिंसा, प्रेम, और समभाव का संदेश निहित था। कबीर का जीवन साधारण था, लेकिन उनकी वाणी अद्भुत थी, जो समाज की कुरीतियों पर करारी चोट करती थी। वे किसी विशेष धर्म या जाति के बंधन में नहीं बंधे थे और उन्होंने हिंदू-मुसलमान दोनों को समान रूप से सत्य की राह दिखाने का कार्य किया।

कबीर का जन्म 1398 (अनुमानित) में वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि वे एक मुस्लिम जुलाहा परिवार में जन्मे थे, लेकिन वे संत रामानंद के शिष्य बन गए और आध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्त हो गए। उन्होंने अपने दोहों के माध्यम से ईश्वर की भक्ति और सामाजिक समरसता का संदेश दिया। उनके दोहों में मानवता, प्रेम, भक्ति, और सच्चे ज्ञान की झलक मिलती है, जो आज भी लोगों को मार्गदर्शन प्रदान करती है।

कबीर दास ने अपने समय में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों और पाखंड का खुलकर विरोध किया। उन्होंने मूर्तिपूजा, बाह्य आडंबर और धार्मिक कर्मकांडों को नकारते हुए सीधे ईश्वर की भक्ति पर बल दिया। उनके दोहे सरल भाषा में होते थे, जिससे आम जनता उन्हें आसानी से समझ सके।

संत कबीर का जीवन परिचय

संक्षिप्त परिचय

संत कबीरदास 15वीं शताब्दी के एक महान भारतीय कवि, समाज सुधारक और संत थे। वे भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में से एक थे, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता, भक्ति और सच्चे प्रेम का संदेश दिया। उनकी रचनाएँ दोहों और साखियों के रूप में मिलती हैं, जो सरल भाषा में गहरी आध्यात्मिक और सामाजिक सच्चाइयों को प्रकट करती हैं। उनका जीवन सादगी, ईश्वर-भक्ति और मानवता की सेवा का प्रतीक था।


विस्तृत परिचय

जन्म एवं प्रारंभिक जीवन

कबीरदास का जन्म लगभग 1398-1448 ई. के बीच माना जाता है। कुछ विद्वान उनके जन्म का वर्ष 1440 ई. बताते हैं। वे काशी (वर्तमान वाराणसी) में जन्मे थे। उनके माता-पिता के विषय में स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं, लेकिन अधिकांश मान्यता के अनुसार, वे नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपति द्वारा पाले गए थे।

धार्मिक और आध्यात्मिक विचार

कबीरदास ने समाज में फैली धार्मिक कुरीतियों, आडंबरों और पाखंड का विरोध किया। वे निर्गुण भक्ति धारा के समर्थक थे और ईश्वर को बिना किसी मूर्ति या विशेष रूप में मानने के पक्षधर थे। उनके विचारों में हिंदू और मुस्लिम दोनों परंपराओं का संगम देखने को मिलता है। वे राम और रहीम को एक मानते थे और इंसानियत को सर्वोपरि मानते थे।

भक्ति आंदोलन में योगदान

कबीर भक्ति आंदोलन के महत्वपूर्ण संतों में से एक थे। उनकी रचनाओं में भक्ति, प्रेम, आध्यात्मिकता और सामाजिक सुधार का संदेश स्पष्ट रूप से मिलता है। वे गुरु रामानंद के शिष्य माने जाते हैं और उनके विचारों ने कई भक्तों को प्रभावित किया।

रचनाएँ और काव्य शैली

कबीरदास ने अपनी रचनाएँ सरल भाषा में प्रस्तुत कीं, जिनमें दोहे, साखी और रमैनी प्रमुख हैं। उनकी भाषा सधुक्कड़ी थी, जिसमें हिंदी, अवधी, ब्रज और फारसी के शब्दों का मिश्रण मिलता है। उनकी प्रमुख रचनाओं का संकलन ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में किया गया है, जिसमें तीन भाग होते हैं—

  1. साखी (नीति और ज्ञान से संबंधित दोहे)
  2. रमैनी (कहानी के रूप में उपदेश)
  3. सबद (भजन और गेय रचनाएँ)

प्रमुख दोहे

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूंगी तोहे॥

मृत्यु

कबीरदास की मृत्यु (या महाप्रलय) के बारे में निश्चित रूप से कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं, क्योंकि उनकी मृत्यु के संबंध में विभिन्न कथाएँ और मत हैं। कबीर की मृत्यु को लेकर विभिन्न परंपराओं में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हैं। हालांकि, उनके जीवन के अंत से जुड़ी कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, जो उनकी शिक्षाओं और योगदान को लेकर विभिन्न विचारों को दर्शाती हैं।

यहां कुछ प्रमुख मत और कहानियाँ दी गई हैं:

1. कबीर की मृत्यु और उसकी रहस्यमय स्थिति:

कबीर की मृत्यु पर सबसे प्रसिद्ध कथा यह है कि उनका शरीर एक रहस्यमय तरीके से गायब हो गया। कहा जाता है कि जब कबीर की मृत्यु का समय आया, तब उनके अनुयायी उनके पास थे। कबीर ने अपनी मृत्यु के समय अपने शरीर को ढकने के लिए एक चादर मंगवाई। जब उन्होंने चादर को हटाया, तो उनके शरीर के स्थान पर केवल फूल और रुद्राक्ष की माला पड़ी हुई थी। कुछ लोग यह मानते हैं कि कबीर ने मृत्यु के समय आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में शरीर छोड़ दिया और वे दिव्य रूप में विलीन हो गए।

2. कबीर की मृत्यु के समय उनका संदेश:

कबीर की मृत्यु के समय उनका संदेश यही था कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है। उनका जीवन केवल सत्य और भक्ति के मार्ग पर चलने का था। उन्होंने कभी धर्म और आडंबर से ऊपर उठकर सच्चाई की बात की और यही विचार उनकी मृत्यु के समय भी उनके अनुयायियों के सामने आया।

3. हिंदू और मुस्लिम परंपरा में दृष्टिकोण:

कबीर के अनुयायी अलग-अलग परंपराओं के थे। एक ओर, हिंदू अनुयायी उन्हें भगवान श्रीराम के भक्त के रूप में मानते थे, तो दूसरी ओर मुस्लिम अनुयायी उन्हें एक सूफी संत मानते थे। इस कारण उनकी मृत्यु के समय दोनों ही समुदायों के लोग वहां उपस्थित थे। कबीर के शव को लेकर दो अलग-अलग समूहों के बीच विवाद हुआ। हिंदू अनुयायी चाहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाज से हो, जबकि मुस्लिम अनुयायी चाहते थे कि उनका शव मुस्लिम रीति से दफनाया जाए। जब चादर हटाई गई, तो दोनों पक्षों ने देखा कि कबीर का शरीर गायब था, और वहां केवल फूल और रुद्राक्ष की माला पड़ी थी। यह घटना दोनों समुदायों के लिए एक रहस्य बन गई और इसे ईश्वर की इच्छा माना गया।

4. कबीर की मृत्यु और उनकी अमरता:

कबीर की मृत्यु के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि उनकी शिक्षाएँ और उनके द्वारा व्यक्त किए गए विचार आज भी जीवित हैं। उन्होंने मृत्यु को केवल शारीरिक रूप से शरीर का त्याग मानकर नहीं देखा, बल्कि आत्मा के शाश्वत अस्तित्व और मुक्ति की बात की। उनकी मृत्यु के बाद भी उनका प्रभाव और योगदान भारतीय समाज में जारी रहा, और उनकी वाणी के माध्यम से उनकी अमरता कायम रही।

कबीर के कुछ प्रसिद्ध दोहे और उनका अर्थ

1. “बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥” अर्थ: केवल बड़े होने से कोई महान नहीं बनता। जैसे खजूर का पेड़ ऊँचा होता है, लेकिन न तो वह किसी को छाया देता है और न ही उसके फल आसानी से मिलते हैं। इसी प्रकार, यदि कोई व्यक्ति समाज के लिए उपयोगी नहीं है, तो उसका बड़ा होना व्यर्थ है।

2. “अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।

अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥” अर्थ: हर चीज की अति हानिकारक होती है। ज्यादा बोलना भी अच्छा नहीं और ज्यादा चुप रहना भी ठीक नहीं। इसी तरह, अत्यधिक बारिश और अत्यधिक धूप दोनों ही नुकसानदायक होती हैं। जीवन में संतुलन बनाए रखना जरूरी है।

3. “चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।

दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय॥” अर्थ: संसार का मोह-माया इंसान को पीस देती है, जैसे चक्की के दो पाटों के बीच में अनाज पिस जाता है। इसलिए हमें विवेक और सच्चे ज्ञान का सहारा लेना चाहिए।

4. “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥” अर्थ: केवल पुस्तकों को पढ़ने से कोई विद्वान नहीं बनता। असली ज्ञान प्रेम और सद्भाव में निहित है।

कबीर के अन्य दोहों जानिए 

तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ ॥

जीवात्मा कह रही है कि ‘तू है’ ‘तू है’ कहते−कहते मेरा अहंकार समाप्त हो गया। इस तरह भगवान पर न्यौछावर होते−होते मैं पूर्णतया समर्पित हो गई। अब तो जिधर देखती हूँ उधर तू ही दिखाई देता है।

मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥

मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-संपत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है?

मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति।
कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥

मन के हारने से हार होती है, मन के जीतने से जीत होती है (मनोबल सदैव ऊँचा रखना चाहिए)। मन के गहन विश्वास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।

जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥

जिस मरण से संसार डरता है, वह मेरे लिए आनंद है। कब मरूँगा और कब पूर्ण परमानंद स्वरूप ईश्वर का दर्शन करूँगा। देह त्याग के बाद ही ईश्वर का साक्षात्कार होगा। घट का अंतराल हट जाएगा तो अंशी में अंश मिल जाएगा।

कबीर के दोहों से मिलने वाली शिक्षाएँ

सादगी और संतोष: जीवन में कम में संतुष्ट रहने की प्रेरणा।
सत्य और अहिंसा: सत्य की राह पर चलने की सीख।
समाज सुधार: जातिवाद, पाखंड और भेदभाव से बचने का संदेश।
भक्ति और आत्मज्ञान: ईश्वर की सच्ची भक्ति और आत्मचिंतन पर जोर।
संयम और संतुलन: जीवन में संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता।

कबीर के दोहे आधुनिक जीवन में क्यों महत्वपूर्ण हैं?

कबीर के दोहे न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि समाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत प्रेरणादायक हैं। उनके दोहे हमें एक गहरी सोच और जीवन के वास्तविक उद्देश्य की ओर प्रेरित करते हैं। आइए हम कुछ प्रमुख पहलुओं पर विस्तृत रूप से चर्चा करें:

1. सादगी और संतोष

कबीर का जीवन सादगी का प्रतीक था और उन्होंने अपनी शिक्षा में भी सादगी को अत्यधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि जीवन में जितनी कम चाहतें और साधारणताएँ होंगी, उतनी ही अधिक शांति और संतोष मिलेगा। उनका प्रसिद्ध दोहा:

“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोई,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोई।”

इसका अर्थ है कि जब हम बाहर की दुनिया में बुराई खोजने जाते हैं, तो हमें वह बुराई कहीं नहीं मिलती, लेकिन जब हम अपनी आत्मा की गहराई में जाकर आत्मनिरीक्षण करते हैं, तो हमें अपनी कमजोरी और त्रुटियाँ ही सबसे बड़ी दिखाई देती हैं। आज के समाज में जहाँ लोग भौतिक सुख-संसाधनों के पीछे भागते हैं, कबीर का यह संदेश हमें बताता है कि संतोष और सादगी से ही जीवन की असली शांति मिलती है।

2. धर्म, पाखंड और भेदभाव

कबीर के दोहे धार्मिक पाखंड और बाहरी आडंबर के खिलाफ थे। उन्होंने यह साबित किया कि सच्चा धर्म केवल दिखावे या बाहरी क्रियाओं में नहीं होता, बल्कि यह आपके आचरण, सोच और आस्थाओं में निहित है। उनका प्रसिद्ध दोहा:

“मसूका मोहि कैसा नीर, मोहि तोड़ी दुःख कलेसा।
धर्म तो एको है जग में, शेष भ्रम में है बैसा।”

यहां कबीर ने स्पष्ट रूप से कहा कि धर्म एक ही है, लेकिन लोग उसे भिन्न-भिन्न रूपों में देख कर भ्रमित हो जाते हैं। यह संदेश आज भी अत्यधिक प्रासंगिक है, क्योंकि समाज में धर्म के नाम पर बहुत से भेदभाव और हिंसा हो रही है। कबीर का यह संदेश हमें आडंबर और धार्मिक कट्टरता से ऊपर उठने का आह्वान करता है।

3. आध्यात्मिकता और आत्मज्ञान

कबीर का जीवन आध्यात्मिक साधना का जीवन था, और उनके दोहे आत्मज्ञान और ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति पर आधारित हैं। उनका यह विश्वास था कि ईश्वर हर व्यक्ति के भीतर है और हमें बाहरी मंदिरों, मस्जिदों, या गुरुद्वारों की बजाय अपने अंदर की दिव्यता को पहचानने की आवश्यकता है। उनका प्रसिद्ध दोहा:

“जो तुम भगवान के होते, तो क्या जगत में रोते।
देखो सच्चे सच्चे से, होता वही भला जो खुदा के होते।”

इसका अर्थ है कि अगर तुम ईश्वर के सच्चे भक्त होते तो तुम संसार की परेशानियों से विचलित नहीं होते। उनके दोहे हमें सिखाते हैं कि बाहरी संसार की कठिनाइयाँ अस्थायी होती हैं, और यदि हमारी आस्था सच्ची है तो हम हर कठिनाई को पार कर सकते हैं।

4. समानता और मानवता

कबीर ने हमेशा समानता और मानवता की बात की। उन्होंने जातिवाद, वर्गभेद और धार्मिक भेदभाव के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। उनका यह विश्वास था कि सभी लोग समान हैं और ईश्वर के आगे सब बराबर हैं। उनका प्रसिद्ध दोहा:

“तिनका जोड़ी बिनु हो, बिनु जोड़ी तिनका हो।
धन्य वही सच्चा आदमी, जो मानवता को पो।”

कबीर ने यह संदेश दिया कि असली आदमी वही है जो मानवता की सेवा करता है और भेदभाव से ऊपर उठता है। आज भी समाज में जातिवाद और भेदभाव की कुरीतियाँ मौजूद हैं, और कबीर का यह संदेश हमें समानता और भाईचारे की आवश्यकता की याद दिलाता है।

5. सत्य और अहिंसा

कबीर के दोहे सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर भी आधारित थे। उन्होंने हमें यह सिखाया कि हमें कभी भी किसी का अहित नहीं करना चाहिए और सत्य का पालन करना चाहिए। उनका एक प्रसिद्ध दोहा है:

“सत्य बोलो और धर्म का पालन करो,
करने के बाद पछताना नहीं होगा।”

यह संदेश आज के समय में और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि आजकल लोग अक्सर अपने स्वार्थ के लिए झूठ बोलते हैं या दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं। कबीर का यह दोहा हमें याद दिलाता है कि सत्य और अहिंसा का पालन करने से ही जीवन में सच्ची सफलता और शांति मिलती है।

6. जीवन का उद्देश्य और आत्मनिरीक्षण

कबीर ने हमेशा आत्मनिरीक्षण और आत्मज्ञान पर जोर दिया। उन्होंने यह बताया कि जीवन का असली उद्देश्य आत्मा की शांति और ईश्वर से मिलन है। उनका प्रसिद्ध दोहा:

“पानी में मछली तैरी, तैरे माया।
जहां से तू आए, वहीं तू समाया।”

यहां कबीर ने यह स्पष्ट किया कि जैसे मछली पानी में तैरती है, वैसे ही हमें अपने अस्तित्व का उद्देश्य समझने के लिए अपने भीतर की गहराई में जाना चाहिए। इस संसार में आने का उद्देश्य सिर्फ भौतिक सुख की प्राप्ति नहीं है, बल्कि यह आत्मा का साक्षात्कार और परमात्मा के साथ मिलन है।

FAQ (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)

1. कबीर के दोहे किस भाषा में लिखे गए थे?

कबीर के दोहे प्रमुख रूप से अवधी, सधुक्कड़ी और हिंदी मिश्रित भाषा में लिखे गए थे।

2. कबीर के दोहों का मुख्य संदेश क्या है?

उनका मुख्य संदेश प्रेम, ईमानदारी, संतोष, अहंकार त्याग, और सच्चे ज्ञान की प्राप्ति है।

3. कबीर के दोहे आज के समय में कैसे उपयोगी हैं?

आज की तेज़-रफ़्तार ज़िंदगी में कबीर के दोहे हमें सादगी, आत्म-साक्षात्कार और सच्चे आनंद की ओर प्रेरित करते हैं।

4. कबीर ने किन सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया?

उन्होंने जातिवाद, अंधविश्वास, बाह्य आडंबर, और पाखंड का विरोध किया।

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