भारतीय फिल्म उद्योग, जिसे आमतौर पर बॉलीवुड के नाम से जाना जाता है, विश्व के सबसे बड़े फिल्म उद्योगों में से एक है। भारत में फिल्में न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि ये समाज पर गहरा प्रभाव डालती हैं। यहाँ सालाना लगभग 1250 से अधिक फीचर फिल्में और लघु फिल्में बनती हैं। फिल्मों के माध्यम से न केवल कहानियाँ प्रस्तुत की जाती हैं, बल्कि समाज के विभिन्न पहलुओं, सांस्कृतिक धरोहरों, राजनीतिक मुद्दों और व्यक्तिगत संघर्षों को भी चित्रित किया जाता है।
वर्तमान में, भारतीय फिल्म उद्योग का कुल राजस्व लगभग 13,800 करोड़ रुपये (2.1 अरब डॉलर) है और इसके 2020 तक लगभग 23,800 करोड़ रुपये तक बढ़ने की उम्मीद थी। भारतीय सिनेमा का विस्तार केवल घरेलू स्तर पर ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी हो रहा है। फिल्में अब विभिन्न भाषाओं में डब की जा रही हैं और विदेशों में भी भारतीय फिल्मों का क्रेज तेजी से बढ़ रहा है। भारतीय फिल्म उद्योग का योगदान न केवल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को भी समृद्ध करता है।
फिल्में: समाज का आइना या कल्पना?
यह कहा जाता है कि “फिल्में समाज का आइना होती हैं,” अर्थात फिल्मों में वही दिखाया जाता है जो समाज में घटित हो रहा है। हालाँकि, यह बयान हमेशा सच नहीं होता। फिल्मों में कई बार कल्पनाएँ और काल्पनिक कथानक होते हैं जो वास्तविक जीवन से अलग होते हैं। खासतौर पर बॉलीवुड फिल्मों में रोमैंस, ड्रामा और फैंटेसी का मिश्रण होता है, जो वास्तविक जीवन से काफी अलग होता है। इसके अलावा, कुछ फिल्मों में नग्नता, हिंसा और अपशब्दों का अधिक उपयोग होता है, जिसे सेंसर बोर्ड द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
सेंसर बोर्ड फिल्मों को प्रमाणित करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि फिल्में समाज में अराजकता न फैलाएँ, और दर्शकों के विभिन्न वर्गों के लिए उपयुक्त हों। लेकिन कई बार सेंसरशिप को लेकर विवाद उत्पन्न होते हैं, जब फिल्म निर्माता यह तर्क देते हैं कि उनकी रचनात्मक स्वतंत्रता को बाधित किया जा रहा है।
सेंसर बोर्ड (CBFC) का इतिहास और भूमिका
सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (CBFC) जिसे आमतौर पर सेंसर बोर्ड कहा जाता है, भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन कार्य करता है। यह एक आधिकारिक निकाय है जो फिल्मों, धारावाहिकों, विज्ञापनों और दृश्य सामग्री को सर्टिफिकेट जारी करने का कार्य करता है। सेंसर बोर्ड का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी फिल्म की सामग्री समाज के नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप हो और किसी भी प्रकार की अनुचित या भड़काऊ सामग्री को रोक सके।
सेंसर बोर्ड की स्थापना 15 जनवरी, 1952 को मुंबई में की गई थी। उस समय इसे सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर्स कहा जाता था, लेकिन 1 जून, 1983 को इसका नाम बदलकर सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन कर दिया गया। आज, देश भर में इसके 9 क्षेत्रीय कार्यालय हैं जो फिल्मों की प्रमाणन प्रक्रिया को संभालते हैं। ये कार्यालय मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, हैदराबाद, तिरुवनंतपुरम, दिल्ली, कटक और गुवाहाटी में स्थित हैं।
सेंसर बोर्ड की संरचना
सेंसर बोर्ड की संरचना सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1952 (अधिनियम 37) के तहत होती है। इसके अध्यक्ष और सदस्य सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। बोर्ड के सदस्य विभिन्न क्षेत्रों से आते हैं जैसे कि कला, साहित्य, समाज सेवा, मीडिया, और सरकार। फिल्में देखने और समीक्षा करने के लिए एक स्क्रीनिंग कमिटी होती है, जिसमें बोर्ड के सदस्य और कुछ गैर-सरकारी सदस्य होते हैं।
यह कमिटी फिल्म को देखने के बाद निर्णय लेती है कि फिल्म को कौन सा सर्टिफिकेट दिया जाएगा। यदि किसी फिल्म में अनुचित सामग्री होती है, तो उसे काटने या संशोधित करने के लिए कहा जाता है। इसके बाद ही फिल्म को सर्टिफिकेट दिया जाता है और रिलीज़ की अनुमति मिलती है।
सर्टिफिकेट के प्रकार
सेंसर बोर्ड चार प्रकार के सर्टिफिकेट जारी करता है, जिनके आधार पर फिल्म को विभिन्न दर्शक वर्गों के लिए उपयुक्त घोषित किया जाता है:
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U (अनिर्बंधित):
यह सर्टिफिकेट उन फिल्मों को दिया जाता है जो सभी उम्र के दर्शकों के लिए उपयुक्त होती हैं। U सर्टिफिकेट प्राप्त करने वाली फिल्मों में हिंसा, अश्लील भाषा या अनुचित सामग्री नहीं होती। ये फिल्में पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, ‘हम आपके हैं कौन’, ‘भाग मिल्खा भाग’, और ‘बागबान’ जैसी फिल्में U श्रेणी में आती हैं। -
U/A (अभिभावक की उपस्थिति में):
इस सर्टिफिकेट के अंतर्गत आने वाली फिल्मों में कुछ दृश्यों में हिंसा, अश्लील भाषा, या यौन संबंधित सामग्री हो सकती है। इस श्रेणी की फिल्में 12 साल से बड़े बच्चों को उनके अभिभावकों की उपस्थिति में देखने के लिए उपयुक्त मानी जाती हैं। ‘बाहुबली’, ‘ये जवानी है दीवानी’ जैसी फिल्में इस श्रेणी में आती हैं। -
A (वयस्क):
A सर्टिफिकेट उन फिल्मों को दिया जाता है जो केवल वयस्कों के लिए होती हैं। इनमें हिंसा, नग्नता, यौन सामग्री या अपशब्दों का इस्तेमाल अधिक होता है। इन फिल्मों को केवल 18 वर्ष या उससे अधिक उम्र के लोग ही देख सकते हैं। उदाहरण के लिए, ‘डर्टी पिक्चर’, ‘जिस्म 2’ जैसी फिल्में A श्रेणी में आती हैं। -
S (विशेष वर्ग):
यह सर्टिफिकेट उन फिल्मों को दिया जाता है जो विशेष दर्शक वर्ग जैसे डॉक्टर, इंजीनियर आदि के लिए बनाई जाती हैं। S सर्टिफिकेट बहुत कम फिल्मों को जारी किया जाता है क्योंकि यह सामान्य दर्शकों के लिए नहीं होता।
फिल्म प्रमाणन की प्रक्रिया
फिल्म प्रमाणन की प्रक्रिया बहुत ही विस्तृत होती है। पहले, फिल्म निर्माता अपनी फिल्म को सेंसर बोर्ड के सामने प्रस्तुत करते हैं। इसके बाद फिल्म को बोर्ड के सदस्यों द्वारा देखा जाता है। यदि फिल्म में कोई अनुचित सामग्री पाई जाती है, तो उसे फिल्म से हटाने या संशोधित करने का निर्देश दिया जाता है। फिल्म के प्रमाणन में आमतौर पर 68 दिन लगते हैं, जो सिनेमैटोग्राफ एक्ट के नियमों के अनुसार होता है।
फिल्म को प्रमाणित करने के बाद, उसे एक यूनिक नंबर दिया जाता है, जिसे फिल्म की शुरुआत में दिखाया जाता है। यह सर्टिफिकेट फिल्म के दर्शक वर्ग को सूचित करता है कि फिल्म किस श्रेणी में आती है।
सेंसरशिप और विवाद
फिल्म सेंसरशिप हमेशा एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। कुछ फिल्म निर्माता यह तर्क देते हैं कि सेंसर बोर्ड उनकी रचनात्मक स्वतंत्रता पर रोक लगाता है। वहीं, सेंसर बोर्ड का मानना है कि उसका मुख्य कार्य यह सुनिश्चित करना है कि फिल्में समाज में किसी प्रकार की अशांति या विवाद पैदा न करें।
सेंसरशिप को लेकर कई बार सार्वजनिक बहसें होती हैं, खासकर तब जब किसी फिल्म को A या U/A सर्टिफिकेट दिया जाता है। फिल्मकार अक्सर अपील करते हैं कि उनकी फिल्मों को U सर्टिफिकेट दिया जाए ताकि उनकी फिल्में बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँच सकें।
डिजिटल मीडिया और सेंसरशिप
इंटरनेट और ओटीटी प्लेटफार्म्स के आगमन के साथ, सेंसरशिप का दायरा बढ़ गया है। हालांकि, वर्तमान में ओटीटी प्लेटफार्म्स पर उपलब्ध सामग्री सेंसर बोर्ड के अधीन नहीं आती है, लेकिन सरकार इस पर विचार कर रही है कि कैसे डिजिटल सामग्री को भी नियंत्रित किया जा सके। ओटीटी प्लेटफार्म्स पर अक्सर अधिक स्वतंत्रता होती है, जिसके कारण सामग्री में हिंसा, अश्लीलता और अनुचित भाषा का प्रयोग अधिक होता है।
विदेशी और डब की गई फिल्मों के लिए सेंसरशिप
सेंसर बोर्ड भारतीय फिल्मों के साथ-साथ विदेशी और डब की गई फिल्मों को भी सर्टिफिकेट जारी करता है। आयातित विदेशी फिल्मों और डब की गई फिल्मों को भारत में रिलीज़ करने से पहले सेंसर बोर्ड द्वारा प्रमाणित किया जाता है। विशेष रूप से डब फिल्मों के लिए अलग से प्रमाणपत्र नहीं दिया जाता है, लेकिन उनकी सामग्री की समीक्षा की जाती है।
सेंसर बोर्ड के सामने आने वाली चुनौतियाँ
सेंसर बोर्ड के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह फिल्म निर्माता और दर्शकों के बीच एक संतुलन बना सके। बदलते सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य के साथ, फिल्में अब अधिक विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दों को उठाने लगी हैं। इससे सेंसर बोर्ड के सामने चुनौतियाँ और बढ़ जाती हैं।
इसके अलावा, डिजिटल युग में फिल्में और वेब सीरीज सेंसर बोर्ड की पहुँच से बाहर हो गई हैं। ऐसे में बोर्ड के पास यह चुनौती है कि वह कैसे इन नए प्लेटफार्म्स को भी अपने नियंत्रण में लाए।
भविष्य में सेंसर बोर्ड की भूमिका
सेंसर बोर्ड को आने वाले समय में और अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। सामाजिक और सांस्कृतिक बदलावों के साथ, फिल्मों में दिखाए जाने वाले विषय भी बदल रहे हैं। इसके अलावा, ओटीटी प्लेटफार्म्स और डिजिटल मीडिया की बढ़ती लोकप्रियता ने सेंसर बोर्ड के सामने नई चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं।
सरकार और फिल्म उद्योग के बीच संवाद के माध्यम से इस दिशा में सुधार की प्रक्रिया चल रही है। यह देखा जाना बाकी है कि आने वाले समय में सेंसर बोर्ड किस प्रकार से अपने नियमों को अपडेट करेगा और नए प्लेटफार्म्स को नियंत्रित करेगा।
FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले सवाल)
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सेंसर बोर्ड फिल्मों पर प्रतिबंध क्यों लगाता है?
सेंसर बोर्ड फिल्मों पर प्रतिबंध लगाता है जब वह यह पाता है कि फिल्म में ऐसी सामग्री है जो समाज में अराजकता, हिंसा या धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाओं को आहत कर सकती है। -
सेंसर बोर्ड फिल्मों का सर्टिफिकेशन कैसे करता है?
फिल्म निर्माता अपनी फिल्म को सेंसर बोर्ड के सामने प्रस्तुत करते हैं, जिसे बाद में समीक्षा समिति द्वारा देखा जाता है। फिल्म की सामग्री के आधार पर उसे U, U/A, A या S सर्टिफिकेट जारी किया जाता है। -
क्या डिजिटल फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड का प्रमाणपत्र आवश्यक है?
वर्तमान में, ओटीटी प्लेटफार्म्स पर उपलब्ध फिल्मों और वेब सीरीज के लिए सेंसर बोर्ड का प्रमाणपत्र आवश्यक नहीं है। लेकिन भविष्य में इसके लिए कानून बनाए जा सकते हैं। -
क्या सेंसर बोर्ड फिल्म निर्माताओं की रचनात्मक स्वतंत्रता को बाधित करता है?
कई बार फिल्म निर्माता यह दावा करते हैं कि सेंसर बोर्ड उनकी रचनात्मक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करता है, लेकिन सेंसर बोर्ड का उद्देश्य समाज में शांति और सद्भाव बनाए रखना होता है। -
सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेट मिलने में कितना समय लगता है?
फिल्म के सर्टिफिकेशन में आमतौर पर 68 दिनों का समय लगता है, जो कि सिनेमैटोग्राफ एक्ट के नियमों के अनुसार होता है।
निष्कर्ष
भारतीय सेंसर बोर्ड देश में फिल्मों की प्रमाणन प्रक्रिया का अहम हिस्सा है। यह फिल्मों के माध्यम से समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखता है और यह सुनिश्चित करता है कि फिल्में समाज के विभिन्न वर्गों के लिए उपयुक्त हों। सेंसर बोर्ड के कार्य को लेकर भले ही विवाद हों, लेकिन यह आवश्यक है कि फिल्में एक जिम्मेदार तरीके से बनाई जाएँ और उन्हें दर्शकों के लिए उपयुक्त तरीके से प्रस्तुत किया जाए।